अमर्त्य सेन कह रहे हैं कि विकास का मतलब सिर्फ विदेशी निवेश या ढांचागत उद्यमों को बढ़ावा दे देना ही नहीं है। ‘असल’ विकास का मतलब यह है कि देश में स्वास्थ्य, शिक्षा और इन्फ्रास्ट्रक्चर में कितना ‘तालमेल’ है और आमजन को इसका कितना ‘फायदा’ मिल रहा है...। 

मोदी के ‘गुजरात मॉडल’ को देखें (जिसे वह पूरे देश में लागू करना चाहते हैं) तो वहां ढांचागत विकास तो हुआ है लेकिन कुपोषण और अशिक्षा के आंकड़े कई अफ्रीकी देशों की तुलना में बहुत खराब हैं। कई मामलों में तो ये पड़ोसी बांग्लादेश से भी खराब हैं। 

अब सवाल यह है कि विकास को बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा से कैसे जोड़ा जाए। इसका एक उपाय है... वह भी अपने ही देश में... अक्षय पात्र अभियान...। 

अक्षय पात्र फाउण्डेशन भारत की एक अशासकीय संस्था है जो देश के 10 राज्यों में सात हजार से ज्यादा स्कूलों में 15 लाख से ज्यादा स्कूली छात्रों को निःशुल्क भोजन उपलब्ध कराती है।

साल 2000 में इस संस्था का गठन कर्नाटक के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीब बच्चों की मदद करने के लिए किया गया था और धीरे-धीरे राज्य सरकार तथा कॉरपोरेट जगत की मदद मिलने से संस्था ने अपनी विशिष्ट पहचान बना ली। इस संस्था का मकसद यही है कि देश में कोई भी गरीब बच्चा भूख की वजह से अपनी पढ़ाई नहीं छोड़े और इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर उन्होंने दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्रों को ही प्राथमिकता दी है। फिलहाल यह संस्था असम, कर्नाटक, तमिल नाडु, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, उड़ीसा, गुजरात, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित स्कूलों को भोजन उपलब्ध करा रही है।

गुजरात में करीब डेढ़ लाख, राजस्थान में सवा लाख, बेंगलुरू में सवा दो लाख और हुबली में करीब दो लाख विद्यार्थी इस कार्यक्रम से लाभान्वित हो रहे हैं। बेंगलुरू में करीब तीन हजार गर्भवती महिलाएं भी इस योजना से लाभ उठा रही हैं। प्रति विद्यार्थी भोजन की लागत पांच रुपये में से तीन रुपये सरकार वहन कर रही है और शेष राशि बेंगलुरू स्थित इस्कॉन मंदिर में प्राप्त दान के अलावा उद्यमियों व स्वयंसेवी संस्थाओं के सहयोग से वर्ष में औसतन 235 दिन यह कार्यक्रम संचालित हो रहा है।  

इसे इंटरनैशनल सोसायटी फॉर कृष्ण कांशसनेस (इस्कॉन) चलाती है। संगठन अगले पांच वर्षों में करीब 50 लाख बच्चों को यह सुविधा देने का लक्ष्य बना रहा है। अभी इसके जरिए करीब 15 लाख बच्चों को खाना मुहैया कराया जाता है।

खास बात यह है कि भोजन बनाने के लिए 25 अत्याधुनिक रसोई घर बनाए गए हैं जो पहली नजर देखने में कोई फैक्ट्री जैसे लगते हैं। दो से तीन मंजिल के इन भवनों में शुद्धता के कड़े मानकों का पालन कर रोजाना भोजन तैयार कर स्कूलों में पहुंचाया जाता है। 

अब कोई सरकार यदि इस मॉडल को अपनाकर इसकी पहुंच को तीन गुना कर दे तो देश के बच्चों को दिन में कम से कम एक बार पौष्टिक भोजन मिलना तय हो जाएगा। इससे वे स्वस्थ रहकर और शिक्षा ग्रहण कर राष्ट्र निर्माण में अपनी भागेदारी तय कर पाएंगे। ‘ढांचागत विकास’ को ही ‘असल’ विकास मानने की ‘गलती’ करने वाले हमारे नेतृत्वकर्ता जरा इधर ध्यान दें तो अमर्त्य सेन के ‘ज्ञान’ का ‘लाभ’ देश ले सकेगा। ‘इन्फ्रास्ट्रक्चर’ को बढ़ाना ही है तो क्यों न इस तरह के और ज्यादा रसोईघर पूरे देश के दूरदराज के इलाकों में बनाए जाएं। इन रसोईघरों के निर्माण से स्थानीय स्तर पर लोगों को न केवल रोजगार मिलेगा बल्कि वहां के अन्य उत्पादकों और किसानों द्वारा किए जा रहे ‘अतिरिक्त’ उत्पादन को सही अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है।

हालांकि, इस अभियान में सरकार अपनी एक ‘भूमिका’ पहले से ही निभा रही है। लेकिन, अब इसे और बढ़ाए जाने की जरूरत है। सरकार का यह ‘एक’ कदम हालातों में बड़े बदलाव का द्योतक बन सकता है।