सीबीआई का छापा पड़ा तो बड़ा 'गुस्सा' आया...। एक 'अनुभवहीन' नेता की तरह जोर से गालियां 'फेंक' के मारी।
जब शाम को अपनेआप को टीवी पर देखा तो समझ आया कि ये क्या कर डाला। आनन-फानन में सबको इकट्ठा करके मंथन किया कि एक 'घाघ' का मुकाबला इसी तरह से करें या कुछ 'सोच-विचारकर'...। दिमाग लगाया तो कुछ वास्तविक 'सवाल' उभरे जो पूछने थे... पूछ डाले...।
जब अरुण जेटली डीडीसीए के अध्यक्ष थे तो घोटाले हुए उनकी नाक के नीचे... ठीक वैसे ही जैसे मनमोहन सिंह की नाक के नीचे हुए थे। हो सकता है जेटली ठीक वैसे ही 'दोषी' न हों जैसे मनमोहन सिंह 'शायद' नहीं थे। लेकिन सब कुछ हुआ था और उन्हीं की पार्टी के लोगों ने सवाल भी उठाए थे। चाहे अध्यक्ष जी के कहने से बेशक कीर्ति आजाद 'चुप' हो जाएं या न हों, लेकिन, सवाल वह उठा चुके थे तो आग तो थी ही धुंए के साथ।
अब, चूंकि सवाल 'वास्तविक' थे तो तीन-तीन मंत्रालय संभाल रहे मंत्री जी ने डेढ़-दो घंटे का समय निकाला और एक लेख लिखा। लेख में सवालों के 'जवाब' दिए... लेकिन सवाल फिर भी 'कायम' रहे...।
इस सब अफरातफरी में न अरविंद केजरीवाल का फायदा हुआ और न अरुण जेटली का...। यहां तक कि कीर्ति आजाद का भी कोई फायदा नहीं हुआ लेकिन लोकतंत्र का 'फायदा' हुआ। एक कमोबेश 'दबा' हुआ मामला ढंग से मुख्य विमर्श में आया...। लेकिन, फैसला तो हर बार की तरह हम भारत के लोग ही करेंगे...
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