गांव में एक 'कुत्ता' होता था। मोहल्ले के हर घर से एक-एक रोटी निकलती थी जिसे खाकर वह अपना जीवन-यापन करता था। और, उसके एवज में वह रात-दिन घरों की रखवाली करता था। मोहल्ले के लोगों पर भौंकता नहीं था और किसी अनजान को मोहल्ले के अंदर आने नहीं देता था। अनजान व्यक्ति घर में तब तक नहीं घुस सकता था जब तक कि उस कुत्ते को 'चुप' रहने के लिए डांट न पड़ जाए।

इसके उलट, यहां शहर के कुत्तों को हम लोगों से कोई 'मतलब' नहीं है। पड़ोसियों पर खूब भौंकते हैं, कभी-कभी तो काट भी लेते हैं। तथा, अनजान लोग तो मोहल्ले में आकर कार तक चुरा ले जाते हैं और वे उफ्फ तक नहीं करते। मोहल्ले के लोगों को भी सड़क के कुत्तों से कोई खास हमदर्दी नहीं रही है। उनके पास अपने वाला 'निजी' कुत्ता है। सड़क के कुत्ते को वे 'रोटी' नहीं देते। 

हालांकि, रसोई में कुत्तों के लिए रोटी अभी भी बनती है लेकिन यह कभी किसी आवारा गाय के पेट में चली जाती है या फेंक दी जाती है। ज्यादा आलस आ रहा हो तो छत के ऊपर कूद-फांद कर रहे बंदर को डाल दी जाती है। 

दरअसल, अब उन कुत्तों को भी उस रोटी की कोई 'दरकार' नहीं रही है। आज के 'डिजिटल' युग में वे हमारी डाली गई रोटी पर निर्भर नहीं रहे हैं। नुक्कड़ वाली चिकन की दुकान के सामने पूंछ हिलाते रहते हैं। चिकनवाला कभी-कभी बची हुई हड्डियां और बाकी मांस के टुकड़े उनके आगे डालता रहता है या फिर दुत्कार देता है। सगे वे उसके भी नहीं हैं। जब तक आस रहती है तब तक पूंछ हिलाते रहते हैं। बैठे रहते हैं, नहीं तो फिर उठकर चले जाते हैं। जब कभी चिकनवाला गली में अकेला दिखता है तो उसपर जमकर भड़ास निकालते हैं। खूब भौंकते हैं और काट भी लेते हैं।

अब यह समझ नहीं आ रहा है कि गांव के कुत्ते और शहर के कुत्ते में यह अंतर क्यों है...। इसके लिए हम जिम्मेदार हैं या खुद कुत्ते...।