उदय प्रकाश (कवि - कथाकार, पुरस्कृत कृति -''मोहन दास''), नयनतारा सहगल (अंग्रेजी साहित्यकार, Rich Like Us), अशोक वाजपेयी (कवि - आलोचक, 'कहीं नहीं वहीं') और अब शशि देशपांडे (That long silence), सारा जोसेफ़ (अलाहायुदे पेनम्मकल) ने प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया है। साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों, कलाकारों का यह प्रतिरोध जताने का तरीका है। प्रतिरोध की संस्कृति बनी - बची रहे। ''राजनीति की सांस्कृतिक चेतना'' जैसी भी हो, रही हो- पर ''संस्कृति की राजनीतिक चेतना'' भी ''चुनी हुई चुप्पियों' वाली नहीं रही है? दलितों - शोषितों - आदिवासियों - स्त्रियों पर लगातार अत्याचार और हिंसा के दौर में आखिर क्या - क्या लौटाएंगे...? अगर ''साहित्य अकादमी'' पुरस्कार प्राप्ति में सत्ता और राजनीति का योगदान नहीं रहा हो तो, फिर सत्ता - संस्कृति प्रतिरोध स्वरूप अकादमी पुरस्कार लौटा देना सही है क्या? साल 1984, 1992, 2002, 2013 (मुजफ्फरनगर) के प्रतिरोधस्वरूप कितने रचनाकारों ने पुरस्कार लौटाया? आप सभी के प्रतिरोध के प्रति हमारा गहरा सम्मान है। पर, हमारी नजर में अपनी - अपनी जमीं पर रहकर प्रतिरोध जताने के और भी तरीके सकते हैं। सड़क पर भी निकल सकते हैं...

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