वित्त मंत्री ने साफ कर दिया है कि उनके पास किसानों के कर्ज माफ करने लायक पैसे नहीं हैं। राज्य सरकारें अपना हिसाब लगाएं और चाहें तो कर्ज माफ कर दें और न चाहें तो माफ न करें।
यूपी में भाजपा कर्ज माफी का वायदा करके सत्ता में आई और योगी आदित्यनाथ ने तुरत-फुरत में जितना कम-ज्यादा हो सकता था, कर्ज माफी की ‘डुगडुगी’ बजा दी।
यूपी को देखकर पहले तमिलनाडु, महाराष्ट्र और बाद में मध्य प्रदेश में कर्ज माफी की मांग तीव्रता से उठने लगी। शुरू में सरकारों ने सोचा कि थोड़ा-बहुत हंगामा होगा... बाद में सब ‘मैनेज’ हो जाएगा...। लेकिन, कर्ज माफी की आड़ में कांग्रेस ने घुसकर तथाकथित ‘राजनीति’ कर दी। आंदोलन उग्र हुआ... गोली चली और छह लोग मारे गए। तो, सत्ताधारियों को पता चला कि ये तो ‘राजनीति’ हो गई। अब राजनीति का ‘जवाब’ तो राजनीति से ही दिया जा सकता है। तो… तुरत-फुरत ‘क्षणिक’ उपवास जैसी ड्रामेबाजी के बाद किसानों के हमदर्द ‘बनने’ और ‘दिखने’ की ‘जुगतें’ लड़ाना शुरू हुआ। और..., इसी बीच वित्त मंत्री का कर्ज को राज्य सरकारों के मत्थे मढ़ने संबंधी बयान आया।
इस बयान से होगा क्या...? इस बयान का परिणाम अब दिखने लगा है। पहले पर्याप्त संसाधन न होने का रोना रो रही भाजपा शासित महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश सरकारों ने कर्ज माफी की ओर कदम बढ़ा दिए हैं। जब उत्तर प्रदेश सहित इन तीन बड़े प्रदेशों में ऐसा हुआ या होने वाला है तो कांग्रेस शासित कर्नाटक और पंजाब राज्य के किसानों ने भी ऐसे ही आंदोलन खड़े करने की चेतावनी दे दी। कांग्रेस शासित सरकारों को यदि कर्ज माफी करनी पड़ी तो यह काम उनके लिए भाजपा शासित सरकारों की तुलना में ‘दुष्कर’ होगा। आप कह सकते हैं कि कांग्रेस को मध्य प्रदेश में राजनीति करना ‘महंगा’ पड़ने वाला है। इसे देखकर राहुल गांधी को अपनी ‘नानी’ याद आ भी गई हैं और उन्होंने इटली में उनसे मिलने जाने की घोषणा भी कर दी है।
अब जरा कर्ज के गणित को देखिए...। किसी भी एक राज्य में कुल जमा 36 हजार करोड़ से ज्यादा का किसानी कर्ज नहीं है। इसकी तुलना यदि नौ हजार करोड़ के ‘विजय माल्या’ से करें और कुल जमा चार ‘विजय माल्याओं’ को घेर लिया जाए तो एक प्रदेश की समस्या हल हो जाती है।
लेकिन, सरकारें और बैंक अपने ‘एनपीए’ का रोना शुरू कर देते हैं। दरअसल पिछले 70 सालों के दौरान सरकार किसी की भी आई हो लेकिन किसानों को गंभीरता से किसी ने नहीं लिया। कर्ज माफी कितनी बार की जाएगी? लेकिन, हर दो-चार सालों में कर्ज माफी का ‘झुनझुना’ पकड़ाकर इस समस्या को टाल दिया जाता है। जरूरत इस बात की है कि किसानों की समस्या को पहले समझा जाए फिर एक तंत्र खड़ा किया जाए जिसमें किसानों की फसल को बाजार और भंडारण तक लाया जाए, उनका भुगतान त्वरित किया जाए ताकि वे बिना किसी तनाव के अगले चक्र की फसल की तैयारी में अपने आपको खिपाने में लग जाएं...।
देश में फैली मंडी समितियां और दूसरे सहकारिता समूह इस काम में हाथ बंटाने में सक्षम है। लेकिन, चूंकि इस काम के नियमन में सरकारों को ‘मेहनत’ करनी पड़ेगी इसलिए ज्यादा हंगामा हो तो कर्ज माफी आसान रास्ता है। अत: सरकारें देर-सवेर यही करने को तत्पर दिखती हैं।
एक भूमिका किसान की भी है। किसान अपने खेत-क्यार से बाहर निकले और कायदे के कुछ ऐसे किसान नेता सामने लाएं जो न केवल इस समस्या को समझते हैं बल्कि उन्होंने इसे झेला भी है। तो... वे सरकारों पर दबाव बनाएंगे और सरकारों द्वारा किसानों को गंभीरता से लेने को मजबूर करेंगे।
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