बात 80 के दशक की है। एक अखबार में एक क्षेत्रीय 'नेता' के 'खिलाफ' कोई 'खबर' लगी। ... तो गुस्से में तमतमाए नेताजी कई गाड़ियों में अपने चेले-चपाटे और गुंडों को भरकर संपादक जी को 'धमकाने' के लिए आ गए।
नेताजी ने अपनी बात पूरी 'धमक' के साथ कही और संपादक जी ने उनकी बात बड़े 'गौर' से सुनी। नेताजी के जाते ही संपादक जी ने सभी कर्मचारियों से कहा कि इसका 'पीछा' छोड़ना मत..., और दबाकर लिखो...। अगले दिन अखबार में उसी खबर के और (ज्यादा) 'डेवलपमेंट' छपे। शाम को नेताजी फिर आए, उसी लाव-लश्कर के साथ और बोले कि आखिर तुम्हारी 'हिम्मत' कैसे हुई यह सब और आगे लिखने की। इस बार उनके 'झुंड' में गुंडों की संख्या पहले से काफी कम थी। खैर, उनके जाने के बाद संपादक जी ने पूरी टीम को फिर से उसी स्टोरी पर और 'जोर' देने के लिए कहा। प्रकरण से संबंधित खबरें अगले दिन और 'मुखरता' से छपीं।
तीसरी शाम, नेताजी एक-दो चेले-चपाटे के साथ फिर आ धमके। संपादक जी को 'जनता के हित' का वास्ता देकर 'समझाते' हुए बोले कि आप जो कुछ कर रहे हो उससे समाज का बहुत 'नुकसान' होता है, हो रहा है। कृपया ऐसा ‘न’ करें। लेकिन, संपादक जी कहां 'रुकने' वाले थे। चुपचाप सुनते रहे, उनके जाते ही हम सबको फिर ‘वही’ निर्देश...।
चौथी शाम, नेता जी 'अकेले' आए और ड्राइवर को भी बाहर गाड़ी में ही छोड़कर आए और संपादकजी सहित पूरी टीम से मुखातिब होकर बोले, भाइयो..., यह सब 'ठीक' नहीं है, ऐसी उनसे क्या 'गलती' हो गई है! और.., अगर वाकई कोई गलती हुई है तो हम 'माफी' चाहते हैं। संपादकजी ने कहा, “कल यही छपेगा...।“ अगले दिन वही छपा ... बात खत्म... !
कुछ दिनों बाद सर्कुलेशन विभाग से यह सूचना भी मिली कि इस दौरान अखबार में खूब ‘चमक’ आई है...।
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