आज के दौर में, और शायद पहले भी, पत्रकारिता और राजनीति एक दूसरे के साथ समानांतर चलते प्रतीत होते हैं। हालांकि, पत्रकारिता का क्षेत्र राजनीति से कहीं ज्यादा बड़ा है। पत्रकारिता की भाषा में कहें तो राजनीति महज एक ‘बीट’ है लेकिन हमारे देश में चूंकि राजनीति ही सबसे बड़ा ‘रुचि’ का विषय है तो पत्रकारिता में राजनीति ही छायी रहती है।
पत्रकारिता और राजनीति के आपसी संबंध को हम अंग्रेजी के H (एच) अक्षर से समझ सकते हैं। इस अक्षर की दो खड़ी रेखाओं को आप आज के वक्त की ‘पत्रकारिता’ और ‘राजनीति’ मान सकते हैं। बीच की ‘पड़ी’ रेखा को इन दोनों को जोड़ने वाला ‘पुल’..., जिसके जरिए आजकल इच्छानुसार इधर से उधर जाने की ‘कोशिश’ होने लगी है। कुछ पत्रकारों को जब राजनीति में डुबकी लगाने की इच्छा होती है तो वे इस पुल का ‘इस्तेमाल’ करते हैं। कुछ राजनीतिज्ञ भी अपने आपको कभी कभार ‘पत्रकार’ कहलवाने के लिए इसी पुल का ‘सहारा’ लेने की कोशिश करते नजर आते हैं।
बीते कुछ सालों में कई पत्रकारों ने पत्रकारिता से राजनीति की ओर कदम रखा है। कुछ ‘फेल’ हुए तो कुछ ‘पास’ भी हुए हैं। एक बार राजनीति में प्रवेश कर लेने के बाद सिद्धांतत: व्यक्ति 'पत्रकार' तो नहीं ही रह सकता और न ही वापस कभी राजनीति छोड़कर पत्रकारिता में 'वापसी' कर सकता है। एक तरह से यह 'पुल' पत्रकारिता से होकर राजनीति में जाने का रास्ता तो हो सकता है लेकिऩ इस रास्ते पर आगे बढ़ जाने के बाद यहां से 'लौटा' नहीं जा सकता है।
इसके उलट, अभी कुछ महीनों से महसूस होता है कि कुछ पत्रकार अपनी मर्जी से कभी राजनीति तो कभी पत्रकारिता करते रहने का 'सपना' भी देखने लगे हैं। इससे पत्रकारिता का कितना ‘नुकसान’ या राजनीति का कितना ‘फायदा’ होगा यह तो नहीं पता लेकिन लोगों के जेहन में यह कैसे उतरेगा यह सोचने वाला विषय जरूर है...।
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