पिछले कुछ दिनों के दौरान सोशल मीडिया काफी चर्चा का विषय रहा है। मसला हालांकि डाटा चोरी या उसके दुरुपयोग को लेकर था लेकिन सवाल यह है कि ऐसे आसन्न खतरों के बावजूद हम में से ज्यादातर लोगों के दिन की शुरुआत किसी न किसी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से होकर गुजरने से ही क्यों होती है...?

अगर मैं यहां मौजूद लोगों से पूछूं कि कितने लोगों ने बीते महीने के दौरान इन खबरों से प्रभावित होकर अपना सोशल नेटवर्क अकाउंट बंद किया है…? है कोई...??

कोई नहीं...! ...तो आखिर ऐसा सोशल मीडिया में क्या है कि हम उसकी ओर खिंचे चले जाते हैं। पहले ऑरकुट, फिर फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, जी-प्लस, व्हाट्सएप्प या लिंक्डइन...। ये हमारे जीवन में घुस गए हैं... जो लोग अभी किसी भी तरह के सोशल मीडिया नेटवर्क पर नहीं हैं, उनमें भी यह घुसने वाला है। हमारे जीवन पर इसके नकारात्मक असर भी है और सकारात्मक भी। इसलिए, मानव व्यवहार में इसकी वजह से होने वाले परिवर्तनों पर एक नजर डालना जरूरी हो जाता है। जब वेबफेअर 5.0 की विषयवस्तु पर काम किया जा रहा था तो यह महसूस किया गया कि इस बार सोशल मीडिया के इस मानवीय पक्ष को भी तरजीह दी जाए...

पूरी जनसंख्या के करीब 40 फीसदी लोग (तीन अरब) सोशल मीडिया का प्रयोग करते हैं। इनमें यूरोपियन की संख्या सबसे ज्यादा, फिर अमेरिकी और फिर हम एशियाई विकासशील देशों के लोग हैं।

वातावरण और परिस्थितियों का परिणाम होता है, मानव व्यक्तित्व...। हमारे जीवन में होने वाली घटनाएं, आजू-बाजू मौजूद लोग और उनके आचरण हमारे व्यवहार पर असर डालते हैं। यह व्यवहार हमारे रिश्तों में, व्यापार में, शिक्षा में खुलकर परिलक्षित होता है। बल्कि, उससे कहीं ज्यादा जितना हम सोच भी पाते हैं...।

तीन तरह के यूजर्स

(Frequent, Routine And Addict)

अब हम इसे सोशल मीडिया के संदर्भ में समझने की कोशिश करते हैं। सोशल मीडिया पर मौजूद लोगों का यदि एक त्वरित वर्गीकरण करें तो यहां तीन तरह के यूजर्स हैं।

एक वे जो यहां कभी-कभी आते हैं, एक जो यहां रोज आते हैं और तीसरे वे जो हर वक्त यहीं रहते हैं।

कभी-कभी आने वाले लोग हमारे लिए चिंता का विषय नहीं हैं। हमें चिंता है उनकी जो यहां रोज आते हैं या यहीं पड़े रहते हैं।

नियमित रूप से अपनी मौजूदगी दिखाने वाले लोगों में छात्र भी हैं, प्रोफेशनल्स भी और सामान्य पाठक भी...। इनके काम और इनकी वजह से अंतिम बिंदू पर खड़े यूजर पर पड़ने वाले असर की बात बाद में करेंगे, पहले करते हैं उनकी बात, जो हर वक्त यहीं पड़े रहते हैं।

इस श्रेणी में जो लोग आते हैं उनमें एक बड़ी संख्या बच्चों और किशोरों की है। इन लोगों के मस्तिष्क पर बड़ी आसानी से कुछ चीजें अपना पूरा असर डाल जाती हैं। जैसे अगर इनके फोटो पर कोई लाइक या कमेंट न आए तो इन्हें अपनी खूबसूरत शक्ल पर ही ‘शक’ होने लगता है। दूसरे लोगों के चमचमाते चेहरों को देखकर इन्हें लगने लगता है कि शायद वे ही सबसे ज्यादा ‘बदसूरत’ हैं। किसी के ‘वैभवशाली’ फोटो को देखकर इनमें ये भावना आसानी से आ सकती है कि वही सबसे ज्यादा ‘गरीब’ हैं। औरों के खुशी से भरे चेहरों को देखकर इन्हें ‘लग’ सकता है कि पूरी दुनिया में सिर्फ ये ही ‘दुखी’ हैं।

ईर्ष्या का भाव आना बड़ा आसान होता है, इस उम्र में। इस बात पर लंबी बहस हुई है कि आखिर किस उम्र में सोशल नेटवर्क का प्रयोग शुरू कर दिया जाए। पांच, आठ, 10 और 12 साल की उम्र तक तो दूर ही रहें तो बेहतर है। एक अध्ययन है... जिसके अनुसार 10 साल तक की जो लड़कियां सोशल मीडिया पर रोज कम से कम एक घंटा बिताती हैं तो उनमें एक अनावश्यक दिमागी परेशानी पैदा होने का खतरा मंडराने लगता है। असुरक्षा का भाव इस उम्र समूह में बहुत जल्दी आता है। इस उम्र के दौरान कम से कम भारतीय जीवन शैली में तो वैसे भी बच्चों को अकेला नहीं छोड़ा जाता है तो फिर इन्हें बेहद बड़ी दुनिया के सामने कैसे अकेला छोड़ा जाए...। नियमत: 13 साल की उम्र है..., वह भी थोड़ा जल्दी ही माना जाएगा।

इस उम्र में ‘बुलिंग’, ‘सेक्सुअल अब्यूज’ जैसी चीजों से बच पाने के लिए काफी जद्दोजहद की जरूरत होती है। काफी ‘काउंसलिंग’ की जरूरत होती है। पश्चिमी देशों में तो एक बार को इन समस्यायों से लड़ पाना काफी आसान हो गया है लेकिन अपने जैसे विकासशील देशों में इस तरह का ‘इन्फ्रास्ट्रक्चर’ विकसित होना अभी बाकी है।

इस श्रेणी में बड़ी उम्र के लोग भी आते हैं। पति-पत्नी, या अकेले रहने वाले लोग भी इनमें हो सकते हैं।

मिसूरी, हवाई और सेंट मेरी यूनिवर्सिटी के एक संयुक्त अध्ययन में यह बात देखने में आई कि इस तरह के लोगों के बीच आपसी रिश्तों में नकारात्मकता ज्यादा देखी गई। इन लोगों के बीच चीटिंग, ब्रेकप और तलाक जैसे मामले ज्यादा दिखे।

सोशल मीडिया ने न केवल हमारी सोचने की शक्ति को बदला है बल्कि हमारे व्यवहार और सामाजिक आचरण का अनियंत्रित तरीके से संचालन करने का 'दु:स्साहस' भी किया है।

कॉरनेल यूनिवर्सिटी में हुए एक अध्ययन के अनुसार सोशल मीडिया हमारे आभासी समाज और वास्तविक समाज के बीच के अंतर को समझने में बाधक बन सकती है। सोशल मीडिया पर रिश्तों को बुनने और वास्तविक धरातल पर रिश्तों को समझने में थोड़ा अंतर है।सोशल मीडिया पर महज कुछ शब्दों या फोटो के जरिए प्रभावित हो जाना बेहद आसान है जबकि धरातल पर किसी से प्रभावित होने के लिए कई कारक हो सकते हैं। फोर्ब्स मैगजीन के अनुसार केवल सात फीसदी संवाद ही शब्दों के जरिए हो पाता है। बाकी 93 फीसदी बॉडी लेंग्वेज, आई कॉन्टेक्ट और आवाज के लहजे से होता है। इसलिए, शब्दों के जरिए लिखी पोस्ट से व्यक्तित्व का आकलन करने में गलती की गुंजायश रहती है।

अब बात करते हैं उस श्रेणी की जिसमें हम और आप जैसे लोग आते हैं। हम में से ज्यादातर अपने व्यवसाय से जुड़ी गतिविधियों के लिए आते हैं, कुछ पढ़ने-लिखने आते हैं, कुछ बहसों में शामिल होने आते हैं, कुछ अपनी बात कहकर निकल जाने वाले आते हैं। कुछ सिर्फ इसलिए आते हैं कि उन्हें यह जानना है कि यहां हो क्या रहा है!

कुछ खोजें हुई हैं। भाई लोगों ने कुछ अनुसंधान किए हैं... कुछ सामान्य और असामान्य व्यवहारों पर नजर डालते हैं...

हर खाने-पीने की चीज की फोटो

कोई भी चीज खाने से पहले..., सबसे पहले उसकी फोटो... कई दिशाओं से..., फिर सोशल नेटवर्क पर अपलोड...। इसके बाद भी बजाय खाना खाने के उस पर आए ‘लाइक’ और ‘कमेंट’ का इंतजार करना। अगर लाइक कम आए तो खाने में मजा ही नहीं आया... इसे वैज्ञानिकों ने बाकायदा नाम दिया है ‘Photo taking and eating Disorder’. कई जगहों पर तो यह समस्या इतनी ‘विकराल’ हो गई कि कुछ रेस्तराओं ने खाने –पीने की चीजों की फोटोग्राफी अपने यहां पूरी तरह से बैन कर दी। रेस्तरां में जाकर खाने का मजा लीजिए... ‘डॉक्यूमेंटरी’ बाद में भी बन जाएगी।

ऑनलाइन-ऑफलाइन संपर्क

बर्मिंघम यूनिवर्सिटी में एक अध्ययन हुआ कि जो पति और पत्नी, तथा बच्चे और पेरेंट्स हर वक्त ऑनलाइन रहते हैं, वे एक स्तर तक जाने के बाद एक दूसरे की ‘जासूसी’ में लिप्त हो जाते हैं। बच्चों के साथ सीधा संवाद करिए न कि सोशल मीडिया के जरिए उनकी जासूसी। इसकी वजह से बच्चों में चिड़चिड़ापन और दंपतियों में अविश्वास की भावना बढ़ती हुई दिखी। ऑनलाइन संपर्क में रहें लेकिन ऑफलाइऩ भी रिश्तों को पानी देते रहें, उनका पोषण करते रहें...। इस मामले में अभी भारत की स्थिति बेहतर है लेकिन पश्चिमी देशों में तो कई जगह स्थिति बेहद विस्फोटक है।

खुद से प्यार करें लेकिन इतना भी न करें

एक जो खतरा नजर आता है वह यह है कि एक स्तर पर जाकर हमें हम से ‘बेहतर’ कोई नजर ही नहीं आता। सोशल नेटवर्क पर रहें, अपनी कहें, दूसरों की भी सुनें। विश्लेषण करते रहें। अपने को कहीं भी ‘थोपने’ से बचें। अगर कोई आपको वहां से ‘हटने’ के लिए कहे तो तुरंत हटें। अगरआपको ऐसा लगे कि इस समूह विशेष से हमेशा के लिए हटना है तो भी तुरंत हटें। narcissism (आत्मकामिका या अहंकार) से बचें। अपने मत को बहुत ज्यादा महत्व देने की जरूरत नहीं होती है। असहमति के स्वागत के लिए तैयार रहें। यदि आपका कोई मत है तो आपके लिए ऑडियेंस भी है, उसका इंतजार करें।

बार-बार और एक बड़ी संख्या में लगातार अपने फोटो अपलोड करते जाना और उन पर मिलने वाले ‘लाइक’ और ‘कमेंट’ के आधार अपने आत्मविश्वास की ‘गणना’ करना भी नुकसानदायक हो सकता है।

अकेले इंस्टाग्राम पर करीब नौ करोड़ से ज्यादा तो सेल्फी ही हैं। आपको प्रतिदिन पांच सेल्फी डालने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए। अगर यह संख्या बन रही है या बढ़ रही है तो आपके साथ आत्मकेंद्रिता (Egocentricity) की समस्या हो सकती है। अपने निजी जीवन से जुड़े पोस्ट, फोटो हो सकते हैं। लेकिन, विचारों की अधिकता रहे। बहुत लोगों को आपकी अति-व्यक्तिगत चीजों से ज्यादा सरोकार नहीं होता है।

प्रामाणिकता

सोशल मीडिया पर यदि आप अपने से जुड़ी सभी जानकारियां सही-सही देते हैं, किसी गुप्त पहचान का सहारा नहीं लेते हैं तो नए और पुराने फ्रेंड्स आपके विचारों को ज्यादा प्रामाणिकता के साथ स्वीकार कर पाएंगे। एक आंकड़ा है...। करीब 25 फीसदी फेसबुक यूजर मानते हैं कि उन्होंने अपनी अकाउंट इन्फॉर्मेशन के तहत कम से कम एक झूठ जरूर बोला है। सोशल मीडिया पर अपने आप का बेहतर वर्जन पेश करने की जरूरत नहीं होती है।

थोड़े दूर थोड़े पास

करीब 24 फीसदी लोग ऐसे हैं जो सोशल मीडिया पर बिजी होने के चलते अपने वास्तविक जीवन के महत्वपूर्ण पलों का मजा लेने से चूक गए। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर आते-जाते रहिए...। टिक मत जाइए...। लगातार बने रहने से लत लगने की आशंका बन सकती है। अपने लगातार ‘डिजिटल रिप्रजेंटेशन’ के चलते वास्तविक जीवन के अमूल्य पलों की अवहेलना मत करिए। ‘डिजिटल लाइफ’ और वास्तविक जीवन में एक संतुलन बनाने का प्रयास कीजिए।

समुदायों को स्वीकार करें

एक जैसे विचार, एक जैसी रुचियों, गुणों, चिंताओंऔर बेवकूफियों से युक्त दुनियाभर के लोगों से मिलने-मिलाने का काम सोशल मीडिया का मकसद है। ढूंढें और ऐसे ही अन्य ग्रुप की तलाश करें..., जुड़ें...।

अब इस पूरे व्याख्यान से लग रहा है कि सोशल मीडिया कोई डरावनी जगह है। बिल्कुल नहीं है...। यहां आते-जाते रहने के बहुत फायदे हैं..., सही तरह से इसका प्रयोग किया जाना चाहिए...। नुकसानों के प्रति जागृत बने रहने की जरूरत है। छोटे बच्चों को इसके प्रयोग को लेकर शिक्षित करने की जरूरत है। डिजिटल साक्षरता बढ़ाने की जरूरत है। सब भला-भला ही होगा। कोई शंका हो तो पूछिए...

(वेबफेयर द्वारा जयपुर के होटल रॉकवेल में 8 अप्रैल 2018 को आयोजित वेबफेयर मीटअप 5.0 में व्याख्यान)

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